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ये ऊँचाइयाँ
ऊँचा आकाश
नीला, स्वच्छ उजला सा
शांत एकाकी
तारे योगी से समाधिलीन
पक्षी लौट आते फिर फिर
कोई घर नही
कोई जन नहीं
कोई फूल नहीं
कोई गीत नहीं
कोई झरना नहीं
कोई संगी नहीं
कोई साथी नहीं
एक बेबस लाचारी
कोहरे से जूझती
बस ऊँचाइयाँ
और ऊँचाइयाँ
अपने दोनों हाथों
से लुटाती हैं
प्रतिपल एकाकीपन
केवल एकाकीपन !
२१ जनवरी
२०१३ |