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पेड़ तुम सचमुच हो बड़े !
जेठ में तपे
बरखा में भीगे
सूरज में निखरे
धधकती धरती की काया पर
धैर्यशाली बने
लताओं को सहारा दिए
चुपचाप, मौन
अब भी हो खड़े
पेड़, तुम सचमुच हो बड़े !
चहकती तुम्हारी डालों पर चिड़ियाँ
तुम्हारे आँगन में खिली कलियाँ
मंद झोंको में झुलाते नीड़ों को
सूखी तलैया–तट बीहड़ों पर
हरे-भरे
न जाने सदा
कैसे मुस्काते हो खड़े
पेड़, तुम सचमुच हो बड़े !
घुमड़ते बादलों को झेलते हो
बालकों की किलकारियों में
खेलते हो
परहित फलदाई मातृत्व
बिखरते हो
कभी कुछ माँगते नहीं
शाखायें कटने
और साथी बिछुड़ने पर
कहराते नहीं
भरमाते नहीं
आकाश तक तने
उदार कितने घने
गगनचुम्बी हो खड़े
पेड़, तुम सचमुच हो बड़े !
२१ जनवरी २०१३ |