आगत अनागत
अधखुली खिड़की से अधखिला चाँद
अधखिले ख़्वाब-सा पर्दे के पीछे
छिपता-छिपाता चाँद
कभी दिखता है और कभी चाँदनी में
लिपट कर गुम हो जाता है।
जैसे तनहाई में किसी चाहने वाले का अक्स
कभी यादों के ज़रिए ज़हन में उतरता है
और कभी वक्त के समन्दर में
डूब जाता है।-
अधखुली आँखों में चमकीले सपनों की नाव-सा
ये चाँद
न जागने देता है न सोने देता है
अधखिले कमल-सा ये चाँद न बीती रात का
न सुबह होने का पता देता है
अधखुली खिड़की से अधखिला चाँद
अधखिले ख़्वाब-सा पर्दे के पीछे
छिपता-छिपाता कहीं गुम हो जाता है
हमेशा की तरह।
और मैं फिर खिड़की पर
टकटकी लगाकर पर्दे के हिलने
का इन्तज़ार करती हूँ। |