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गाँव में अलाव
जाड़े की कविताओं
को संकलन |
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गाँव में अलाव संकलन |
अपना
गाँव |
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मैं अपने गाँव
जाना चाहती हूँ
जाड़े की नरम धूप और वो छत
का सजीला कोना
नरम-नरम किस्से मूँगफली के दाने
और गुदगुदा बिछौना
मैं अपने गाँव जाना चाहती हूँ
धूप के साथ खिसकती खटिया
किस्सों की चादर व सपनों की तकिया
मैं अपने गाँव जाना चाहती हूँ
दोस्तों की खुसफुसाहट हँसी के ठहाके
यदा कदा अम्मा व जिज्जी के तमाशे
मैं अपने गाँव जाना चाहती हूँ
हाथों को बगलों में दबाए आँच पर चढ़ा
चाय का भगोना
सब बातों में गुम है कोई फरक नहीं पड़ता
किसी का होना न होना
फिर भी भूल नहीं पाती
जाड़े की नरम धूप और छत का सजीला कोना
मैं अपने गाँव जाना चाहती हूँ।
- निवेदिता
जोशी
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जाड़े की दोपहर
में
मैं होती हूँ जब भी, अकेली,
खोई, अपने आप में,
तुम, फूट निकालते हो, गीत से,
स्वर-गुंजन, में मेरे!
थर-थराकर, काँप जाती है
आवाज मेरी - और तब,
गीत, और निखर उठता है,
हो, दर्द मे, सराबोर!
महसूस ही करती हूँ, सिर्फ,
एक परिधि प्यार की,
जाड़े की दोपहर में,
ज्यों हो सुखद, गरमाहट!
अलसा देती है जो, आँखों को,
झुका, झुका देती है!
बदन, सिकुड़ कर, लिपट,
जाता है, अपने आपसे!
मन, रम जाता है यादों में
तुम्हारी, आह! यादें!
जिंदगी के मोड़ पर,
ठिठका देती है मुझे!!
- लावण्या शाह
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