|
एक आत्मीय अनुरोध
कहवाघरों की सर्द बहसों में
अपने को खोने से बेहतर है
घर में बीमार बीबी के पास बैठो,
आईने के सामने खड़े होकर
उलझे बालों को सँवारो -
अपने को आँको,
थके हारे पड़ौसी को लतीफा सुनाओ
बच्चों के साथ साँप-सीढ़ी खेलो -
बेफ़िक्र फिर जीतो चाहे हारो,
कहने का मकसद ये कि
खुद को यों अकारथ मत मारो !
जरूरी नहीं
कि जायका बदलने के लिए
मौसम पर बात की जाए
खंख किताबों पर ही नहीं
चौतरफ दिलो-दिमाग पर
अपना असर कर चुकी है -
खिड़की के पल्ले खोलो
और ताजा हवा लेते हुए
कोलाहल के बीच
उस आवाज की पहचान करो
जिसमें धड़कन है ।
आँख भर देखो उस उलझी बस्ती को
उकताहट में व्यर्थ मत चीखो,
बेहतर होगा -
अगर चरस और चूल्हे के
धुएँ में फ़र्क करना सीखो !
२० जनवरी २०१०
|