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बरसों बाद
बरसों बाद
किसी बदले हुए मौसम की
कोख से आती गंध
और अंतस की गहराई में
बजती धीमी दस्तक के बुलावों पर
जब भी खोलता हूँ
अपने भीतर के दरवाजे
खिड़कियाँ रौशनदान -
कोई नहीं होता वहाँ
उत्सुक
अपने ही पीड़ित सन्नाटों के सिवाय,
जाने कब से खड़ा हूँ
एक गुजरती हुई उम्र के किनारे
उस अन्तहीन अँधेरे की
गिरफ्त में गुमसुम !
बरसों बाद
किन्हीं अधूरे पड़े सपनों की
बिखरी चिन्दियों के बीच
इस बेचैन सितारों से भरी रात के
गूँगे आसमान से उतर कर
कभी तो आओगे मेरी मुक्ति के उल्लास -
सहेज लूँगा मैं
तुम्हें अपने बिखरे हुए संसार में !
२० जनवरी २०१०
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