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अनुभूति में ललिता प्रदीप की रचनाएँ

छंदमुक्त में—
ज़िंदगी की अँधेरी सुरंग
थोड़ी कल्पना मेरी
पूरा भागीदार
भरोसे की कीमत
मेरी हिंदी... मेरी भाषा... मेरी माँ...

 

थोड़ी कल्पना मेरी

कभी सोचा है कि
अगर सूरज चला जाये
छुट्टी पर और
चाँद की तबीयत नाशाद हो जाये
हवाएँ रास्ता भटक जाएँ
और आदमियों की तरह दिशा न पूछे
नदियों का पानी उड़ जाए और
उन्हें सरकारी अस्पताल के मरीज जैसे
कोई सहायता न पहुँच पाए
समुन्दर सभी हड़ताल कर दे कि
उन्हें आसमान पर अब बहने का लाइसेंस
दे दिया जाये...
पेड़ पौधे बोलें कि
अब उनसे जड़ो का बोझ उठाया नहीं जाता
तारे कहें कि अब उनकी चमक
धीमी हो चली है ड्राईक्लीन चाहिए
पीले-झडे़ पत्ते बोलें कि
मुझे फेविकोल से चिपकाओ वापस
हवाओं को ट्रेन चाहिए हो...
दरिया को प्लेन चाहिए हो...
तो तो तो ...
हम सब क्या करेंगे...
सोचो सोचो सोचो...

२ मई २०११

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