प्रवासी का
ग्रीष्मावकाश
तप्त दाहक मरुस्थल को छोड़
चल पड़ी मैं हिमशिखरों की ओर
जन्मभूमि वह मेरी प्यारी
कर्मभूमि वह मेरी न्यारी
मातृमिलन को उत्कंठित, पहुँची मैं हिमशिखरों की ओर...
प्रातकाल की स्वर्णिम बेला में
पल–पल रंग बदले हिमालय
कभी दुग्ध धवल, कभी सोने-सा
स्वर्णिम छटा दिखाए हिमालय
कितना स्वप्निल, कितना रमणीक,
इसका न कहीं ओर–छोर
खो गई रे मैं तो निहार के, इन उज्ज्वल हिमशिखरों की ओर...
ओस कणों की माला पहने
सद्यस्नाता हरी चूनर ओढ़े
कोहरे के घूँघट को सरका
माथे रवि- बिंदिया को चमका
प्रकृति यहाँ बनती चितचोर
रम गया रे मन मेरा फिर से, निर्मल गिरिशिखरों की ओर...
जाने–पहचाने हैं पथ और पंथी
आन मिले सब साथी-संगी
कितने प्यारे चेहरे गोरे गोल-मटोल
कितनी प्यारी बातें सुन मैं हुई विभोर
देख यहाँ की अनुपम आभा
नयन मेरे बन गए चकोर
काश! कभी ना जाऊँ मैं इन शीतल हिमशिखरों को छोड़
हर बार जनम लूँ इसी धरा पर, प्रभु से प्रार्थना है कर जोड़...
२२
जून २००९ |