अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में कमला निखुर्पा की रचनाएँ-

अच्छी हो तुम
जीवन बनाम घंटियाँ
धरती की पुकार
प्रकृति में खो जाएँ
प्रवासी का ग्रीष्मावकाश
 

  प्रवासी का ग्रीष्मावकाश

तप्त दाहक मरुस्थल को छोड़
चल पड़ी मैं हिमशिखरों की ओर
जन्मभूमि वह मेरी प्यारी
कर्मभूमि वह मेरी न्यारी
मातृमिलन को उत्कंठित, पहुँची मैं हिमशिखरों की ओर...

प्रातकाल की स्वर्णिम बेला में
पल–पल रंग बदले हिमालय
कभी दुग्ध धवल, कभी सोने-सा
स्वर्णिम छटा दिखाए हिमालय
कितना स्वप्निल, कितना रमणीक,
इसका न कहीं ओर–छोर
खो गई रे मैं तो निहार के, इन उज्ज्वल हिमशिखरों की ओर...

ओस कणों की माला पहने
सद्यस्नाता हरी चूनर ओढ़े
कोहरे के घूँघट को सरका
माथे रवि- बिंदिया को चमका
प्रकृति यहाँ बनती चितचोर
रम गया रे मन मेरा फिर से, निर्मल गिरिशिखरों की ओर...

जाने–पहचाने हैं पथ और पंथी
आन मिले सब साथी-संगी
कितने प्यारे चेहरे गोरे गोल-मटोल
कितनी प्यारी बातें सुन मैं हुई विभोर
देख यहाँ की अनुपम आभा
नयन मेरे बन गए चकोर
काश! कभी ना जाऊँ मैं इन शीतल हिमशिखरों को छोड़
हर बार जनम लूँ इसी धरा पर, प्रभु से प्रार्थना है कर जोड़...

२२ जून २००९

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter