अच्छी हो तुम
मुझे भाती हो तुम
अच्छी लगती हो,
क्योंकि...
तुम घबराती नहीं
समाज के दिए निर्मम संबोधनों से
क्योंकि...
तुम आत्मसमर्पण नहीं करती हो
लड़ती हो...
अपनी ढाल स्वयं बनकर
दृढ़ बन जाती हो चट्टान-सी...
मुझे अच्छी लगती हो तुम
तुम्हारी नज़रें भी
जो पहचान लेती है वासना के कीड़ों को
जो कभी बहन जी, कभी बेटी कहकर
कानों में बजबजाते हैं
निकट जाते ही देह से चिपक जाते हैं
खा जाते हैं संपूर्ण तन-मन
छोड़ जाते हैं...वीभत्स सड़ांध
मुझे बहुत अच्छी लगती हो तुम
तुम्हारी आधुनिकता भी
क्योंकि तुम बनाती हो अपना मार्ग स्वयं
नहीं चलती उस राह पर जो पुरुषों ने बनाई हैं
सदियों से अपनी सुविधा के लिए
जहाँ कभी वह इंद्र बनकर छलते हैं
कभी गौतम बनकर शाप देते हैं
तो कभी राम बनकर उद्धार करने का श्रेय लेते हैं
शक्तिस्वरूपा नारी को बेचारी बना देते हैं
मुझे सबसे अच्छी लगती हो तुम
तुम्हारा आत्मविश्वास भी...
कि तुम छले जाने पर भी आत्महत्या नहीं करती
फाँसी का फंदा तलाश नहीं करती
बल्कि उठ खड़ी होती हो दूने जोश से
निराशा को झटककर
आँसुओं को पटककर
चल पड़ती हो उस राह पर फिर से
जो बनाई थी तुमने स्वयं अपने लिए
क्योंकि...
सबको ये बताना है अभी तुम्हें
पूँजी नहीं हो तुम किसी की,
न। ही गुलाम हो तुम
घर में घुट-घुटकर नही मरना है तुम्हें
निकलकर बाहर फिर से लड़ना है तुम्हें
अपने अस्तित्व पर
अपने नारीत्व पर
केवल तुम्हारा अपना अधिकार है
ये जताना है तुम्हें!
२२
जून २००९ |