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पूरा जीवन
पेड़ पक गया
फूल नहीं आते
हवा में हिलती हैं
फिर भी पत्तियाँ
हर बार कुछ और झड़ती हुई
नहीं बैठता राही उसकी छाँह में
फल भी तो नहीं देता!
पक्षी फिर भी चहचहाते निकल जाते हैं
सिहराते हुए
ठूँठ भी बसेरा है किसी-न-किसी का
खोखल भी।
बुलबुल का जोड़ा आ उतरता
थोड़ी देर को
मृगशावक चर लेते
झरी पड़ी पत्तियों का हरा हिस्सा।
बादल आ अटकते हैं
लपेटते स्निग्धता से
तरलता से गरमाई सींचते।
झराझर बारिश में
घर उम्मीद से देखते हें
पके पेड़ को
शहतीर की आस में।
धरती छोड़ रही जड़ों को
धीरे-धीरे प्यार से,
कहीं उठ रहा झक्कड़
पहाड़ों के पार,
खींच रहीं जिसे पेड़ की सूखी नसें
मुक्ति के लिये पुकार रहीं
और रोक भी रहीं
छितराए छतनार से।
मोह और मुक्ति के बीच
एक पूरा जीवन जी गया
पका हुआ पेड़।
२५ फरवरी २०१३ |