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कभी हम
कभी
एक बुलबुले में रहते थे हम
चमकते हुए
सूरज की कमी की तरह
हवा की कोख में निर्वस्त्र
ओस से तर-बतर
दो मोती
रंगों की उँगलियों से
अलटते-पलटते एक-दूसरे को।
अब हम कभी नहीं मिलते
सोच की दूरियों में
तैरते रहते हैं
अपनी-अपनी आकाशगंगा पर
आते-जाते तारे टकराकर कहते हैं-
’फूट गया बुलबुला‘
लेकिन हमें मालूम है
उड़ रहा है वह समयाकाश में
मोह के उलझे धागे
साथ-साथ सुलझा लिये
बुन गया है उन्हीं से एक जाला उसके ऊपर।
अपने सीप में मोती लिये हुए
इस कवच में
वह आजाद घूम रहा है
अकेला, निर्द्वंद्व और अमर।
२५ फरवरी २०१३ |