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अनुभूति में हर्ष कुमार की रचनाएँ-

कविताओं में-
कल्पना और विश्वास
दंगे
फ़ासला- एक पीढ़ी का
मैं और मेरा भगवान
संध्या का सूर्य
सभ्यता की पहचान
समुद्र की लहरें

  मैं और मेरा भगवन

सोच रहा हूँ
क्या बोलूँ
भगवन से अपने
जान रहा है
वो तो सब कुछ
जो घटता मन में है मेरे।

उलटी, सीधी, ऊँची, नीची
बात सभी तो
चलती हैं मन में मेरे।
लोग बहुत हैं-
कैसे बोलूँ?
क्या सोचेंगे?
डर लगता है।

इन्हें अगर नहीं बोलूँ
तो क्या बोलूँ?
क्योंकर मैं बोलूँ?
यही सोचकर चुप रहता हूँ
कुछ बोल नहीं कहता
भगवन से अपने
बस चुप रहता हूँ।

मैं मन ही मन
आराधन करता हूँ।
जो जी में आता है
कहता मैं उसको
फिर सुनता उसकी
मन ही मन में।

मौन रूप में जहाँ कहीं मैं
ध्यान मग्न, आराधना करता हूँ
मेरे और भगवन के आड़े
नहीं कोई तीजा होता है।
मैं बस उससे ही कहता हूँ
और मुझी से वो कहता है।
और मुझी से वो कहता है।

२४ मार्च २००८

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