झीले हैं ज़िंदगी
भोपाल का बड़ा तालाब हो
मिशिगन की झील हो, या लेक सुपीरियर,
होती हैं अलग अलग ज़िंदगी.
कुछ-कुछ व्यापक,
कुछ-कुछ महत्वपूर्ण, तरह-तरह से विशाल।
वर्षा के बाद होती शीतल, पर शांत,
न कोई लहर, न ही झोंका समीर का।
औऱ कभी कभी उठें प्रक्षुब्ध तरंगे,
हहर हहर बनें कहर,
जाने किस क्रोध में, खाती रहें पछाड़ सुदूर किनारों तक।
कभी कभी अनानुशासित
लहरों की अवांछित उछल कूद,
तट पर खड़े दर्शकों को कर देती भयाक्रांत
तट रक्षक कभी कभी अति उत्साही दर्शकों को,
बल पूर्वक जता देते हैं, उनकी सीमाएँ।
कभी कभी विप्लवी जल, अजगर बन जाता है,
सरपट भागती लहरें नागिन-सी होती हैं,
निगल जाने, काट लेने को भयावह रूप धरें।
फुफकार लेने के उपरांत, बैठती पिटारे में।
कभी कभी यही तरंगे योग मग्न हो जाती,
अनुलोम विलोम कपालभाति और सूर्य नमस्कार में।
शारीरिक योगाभ्यास जब उन्हें थका देगा
मौन होकर अंतर्मुखी हो जाएँगी कांतियुक्त
स्वयं में एकाग्र, सारी संसृति से विमुक्त।
लहरें महत्वाकांक्षाएँ हैं, किनारों को तोड़
अनियंत्रित हो जाना चाहती हैं
यद्यपि वे तट ही हैं
जो उनकी सुरसा वृत्ति पर लगा देते रोक।
अठ्ठावन सहस्त्र वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल की,
यह वृहद मिशिगन झील
मुझसरीखे करोड़ों मनुष्यों को डुबो सकती है,
मैं किंतु समा लेता अपनी दो आँखों में।
मैं भी कमतर नहीं।
इतिहास साक्षी है
मनुष्य ही नहीं बड़े-बड़े वायुयान डूबे पड़े हैं,
इसके किसी कोने में, किसी गहरी तलछट में।
मैं भी किनारे पर हरी हरी घास पर,
सिर्फ़ बैठा हूँ अथवा इसमें डूबा, मैं स्वयं अनिश्चित हूँ।
१५ जून २००९ |