उन सबके जोड़ में
बहुत से लोग
शामिल नहीं थे मेरी जिन्दगी में
मगर मेरी जिन्दगी
उन सबके जोड़ में थी
कोई भी आपस में जुड़ा हुआ नहीं था
मगर गणित सिर्फ जोड़ न था
वह जारी रहा घटने से
वह जारी रहा विभाजन से
बीच में एक क्रास रखकर
बराबरी के निशान से बाहर
हम होते रहे दुगने-चौगुने
हम आदमी नहीं संख्या थे
हम आँकड़े थे हिसाब किताब के
हम जिन्दगी का बजट बनाते रहे
नफा और नुकसान होते रहे
सुबह हम सट्टे की पथियों पर थे
गरीब आदमी की उम्मीद बनकर
और शाम को सट्टा खुलते ही
उसकी बर्बादी बन जाते थे
हम जिन्दा थे ऊँचाइयों- और नीचाइयों के मापदण्डों में
हम रहते थे रुपयों और पैसों में
और सबकी कलाइयों पर बँधी हुई
घड़ियों में भी धड़कते थे
यह संख्या का खेल
कितना खतरनाक था और कितनी बड़ी दुर्घटना थी
आदमी का संख्या हो जाना
राशन कार्ड पर हम सात थे
स्कूल में गये तो हम सत्तर थे एक कक्षा में
कारखाने में हम सैकड़ों थे
और प्रदेश में लाखों
धरती अपनी कक्षा में घूम रही थी
और हम अपनी-अपनी धुरी से छितराए हुए
लुढ़क रहे थे
चलती हुई गाड़ी से निकल गए
पहिए की तरह।
२५ नवंबर २०१३ |