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सिल पट्टी
बच्चे खेल रहे हैं पार्क में
खिसल रहे हैं खिसल पट्टी पर
माँ-बाप खुश हो रहे हैं
नगर पालिका
नए-नए नागरिक गढ़ रही है
युगानुरूप समाज की नींव पड़ रही है
बचपन से ही सिखाया जा रहा है कि
ऊँचे जाने के बाद नीचे फिसल जाने में क्या मजा आता है
बच्चा बढ़ता जाता है
खिसल पट्टी का रूप बदलता हुआ पाता है
कभी खिसल पट्टी कुर्सी में तब्दील हो जाती है
कभी चरित्र कभी संस्कृति कभी रिश्ते में
धन्य है यह नागरी सभ्यता
जो फिसल जाने को भी खेल बना देती है
यह खिसल पट्टी
एक क्षण भी रुकी हुई नहीं है,
इसलिए
इस पूरी सदी के फैले हुए नर्क में
इतनी गिरावट के बावजूद
आदमी की आँखें झुकी हुई नहीं हैं।
२५ नवंबर २०१३ |