एक माचिस के खोके
में
आसमान की छाती पर
पैर धर कर चल रहा है वह
समुन्दर के किनारे
बैठकर वह पैरों से खंगाल डालता है
पाताल की गहराइयाँ
अब दुनिया का
कोई भी पहाड़ उससे ऊँचा नहीं है
कभी कभी सोचता हूँ
कितना बड़ा है आदमी का दिमाग
मगर कितने तंग और छोटे-छोटे घरों में
कितनी तहों में रखा गया है इसे
छोटी-छोटी दराजों में
इस वक्त
बड़ी तेजी से सिकुड़ती हुई दुनिया में
यह सिकुड़ता हुआ आदमी
मेरी नजरों के सामने है
छोटे-छोटे कोनों में अपना घर बनाता हुआ
मुस्कुराता हुआ
अपनी छोटी-छोटी कल्पनाओं में डूबा हुआ
वह कितनी शान से जी रहा है
एक माचिस के खोके में रखे हुए
किसी ढाका की ऐतिहासिक मलमल के थान सी जिन्दगी
मगर सिकुड़ जाने की कला पर
कितना ऐंठ रहा है वह।
२५ नवंबर २०१३ |