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दर्पण
कभी न देखा मैंने दर्पण।
अपनी सूरत क्या पहचानूँ
तुम कहते हो – चित्र है मेरा।
कितना सच है – मैं क्या जानूँ।
पता नहीं हैं मुझको, मेरी
नाक नुकीली है या मोटी
कानों का आकार है कैसा
आंख बड़ी है या है छोटी।
खाल गाल की है मटमैली
या कुछ ठीक अभी है रंगत
मुझको यह भी पता नहीं है।
कब और कितनी बदली सूरत।
किस पर अब विश्वास करूं मैं।
कौन है अपना कौन पराया।
मेरी ही आंखों ने मुझको
चेहरा मेरा नहीं दिखाया।
दर्पण तुझको जिस प्राणी नें
पहली बार बनाया होगा।
उसने ही शृंगार का जादू
पहली बार जगाया होगा।
९ जनवरी २००३ |