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अनुभूति में दिलीप लोकरे की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
आदमी हूँ मैं
कहाँ गई वो माँ
प्रकृति

यादों के गलियारे
समझदार बच्चा

 

यादों के गलियारे

चलते-चलते
यादों के गलियारे में
एक पल रुक कर
छुआ भर था
अहसास की
अँधेरी दीवारों को मैंने
चीत्कार उठी जैसे वह
सारी की सारी
भावनाओं के चमगादड़
उड़ गए पंख फड़फड़ा कर
सर के ऊपर से
रिश्तों की घिनौनी
बदबू से
नाक जैसे सुन्न
हो गई मेरी
बदहवास सा
बाहर की ओर भागा मैं
खुले आकाश की तलाश में
किन्तु
बदरंग हो चुका था वह भी
घटनाओं के चक्रवात से
सचमुच
कुछ चीजें होती हैं
जिन्हें छुआ नहीं जाता
कुछ जिन्हें
नाम नहीं दे सकते आप
कुछ ऐसा जिसे जी नहीं सकते
और कुछ ऐसा
जिसे जिए बिना
मर भी नहीं सकते

१८ मार्च २०१३

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