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अनुभूति में दिलीप लोकरे की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
आदमी हूँ मैं
कहाँ गई वो माँ
प्रकृति

यादों के गलियारे
समझदार बच्चा

 

कहाँ गई वो माँ

चूल्हे पर सिकी रोटी की गंध में
आँगन बुहारने पर उड़ती धूल की धुन्ध में
त्योहारों पर बनी रंगोली के रंग में
पहले-पहले दिन स्कूल जाती संग में
किसी गलती पर मुझे पीट कर
फिर खुद आँसू बहाती
कहाँ गई वो माँ ?

रात को डरने पर आँचल की छाँव में
गलती कोई करने पर डाँट के भाव में
गरमी की छुट्टी में मामा के गाँव में
छुक-छुक चलती गाडी में भीड़ के दबाव में
पीतल के लोटे से पानी पिलाती
कहाँ गई वो माँ ?

गाँव के टीले पे
मंदिर के मेले में
कागज की फिरकनी मुझे दिलाती
कोने के ठेले पे
बरफ के गोले पे
रंगों की चाशनी ज्यादा डलवाती
खुद न खा कर मुझे खिलाती
कहाँ गई वो माँ ?

१८ मार्च २०१३

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