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सबसे सस्ती मौत
लगाएँ हिसाब मौत की कीमत का
तो सबसे सस्ती मौत शब्दों की होगी।
ज़िम्मेदारियों के कुछ बंदरों ने खींची रस्सी
और शब्द हवा में, ज़ुबान बहार...
इस ज़ुबाँ की भी अलग जात है
ज़ुबान जो चाट ना सकी मालिक के तलवे
जब कानों ने ज़हर चखा, इसने भी ज़हर उगल डाला
इतना ज़हर की अब नीली पड़ चुकी है!
पेड़ पर टँगी लाश सी .
ज़ुबाँ जिसका जिस्म, बाज़ार की हवस न भाँप पाया
रही मटमैली, खुरदुरी, धूल, कोयले, ईमान
और सच से सनी
चापलूसी का शहद, जिसके काम न आया।
हैं कई और गूँगी मौतें जो अखबार में नहीं आती,
"अखबार" जिसका किसी जीवित व्यक्ति या वस्तु से कोई सम्बन्ध
नहीं
पिछड़े गाँव की छोटी बच्ची का ख्वाब
अपने लफँगे भाई से बेहतर बनने का
उसकी किताबों सहित चूल्हे में फूँक दिया जाता है।
कैसी हरामज़ादी दुनिया है तुम्हारी!
चौराहों पर कत्ल के फरमान
और फतवे निकल सकते हैं
पर दो प्रेमी एक स्कूटर पर
चाय पीने नहीं निकल सकते।
तुम कहते हो प्रेम जात नहीं देखता
मैं कहता हूँ मौत भी कहाँ देखती है?
दूर रहो शहर से
किसानों को समझाए कोई
कि किसानों को आदमखोर मान बैठा है शहर
हैं किसके तीर ये? किसका विकास है?
है चल रही मौत की आंधी मेरे देश में
और अखबार इसे किसी की लेहेर मान बैठा है।
खैर, फिर भी अंत में,
लगाएँ हिसाब मौत की कीमत का,
तो सबसे सस्ती मौत लफ़्ज़ों की होगी...
बस एक लकीर खींची ...और खेल ख़त्म ...
१ दिसंबर २०२२ |