अनुभूति में आशीष भटनागर की
रचनाएँ —
साँस
प्यार
प्रिय मन
डोरेस्वामी की वीणा सुनते ही
उत्तरकाशी १९९१ |
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उत्तरकाशी, १९९१
थकती, रूकती
चढ़ती, चलती
थकती, रूकती
औरत, अब चीड़ की उन
फुनगियों से बात कर रही है
जिनसे उसके बेटे ने
शौकिया उतारे थे फल,
जिन पर उसके बेटे ने
बसाए थे कल,
अटके रह गए गुज़रे पल,
सब कुछ वो बीन रही है।
थकती, थकती, चलती औरत अब
गिरे हुए मकान के
पत्थर छाँट रही हैं
जिनमें बसा है उसके पति का स्पर्श
जिन पर गिरा था उसके पति का पसीना
जिन पर सँवारा था उसने
एक बहुत बड़ा सपना
जिनमें ढूँढ़.ा था उसने सहारा
छत और जमीन की मुठ्ठियों से
सब कुछ वो छीन रही है।
थकती, बढ़ती औरत
अब हल के उस मूठ से लिपटी है
पूर्वज़ों से संतानों तक की मुठ्ठियों के
जिस पर निशान हैं,
जिसमें अभी भी चल रही है
जिन्दगी की साँस,
चर कर लौट आए बैल को
वो सहला रही है।
थकी हुई औरत
अपनी आँखों से
फिर ज़मीन नाप रही है
अपने सपनों में
फिर फसल बसा रही है
उसे विश्वास है
मूठ पर कसे उसके हाथ
कँपा–कंपा कर धरती को
थका डालेंगे।
थकने के बावजूद अभी
हारी नहीं है औरत
९ सितंबर २००२ |