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अनुभूति में आशा सहाय की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
आहत युधिष्ठिर
खोलो मन के द्वारों को अब
निर्वाक
प्रथम सावन
मैं सड़क हूँ

 

मैं सड़क हूँ

मैं सड़क हूँ
बढ़ती ही जाती हूँ आगे।
आगे ऊँची दीवारें हैं
गर मर जाऊँ मैं
मैं पहले ही मुड़ जाती हूँ।
जीवन की चाह बड़ी गहरी
ऊँची नीची पथरीले मग को
मैं समतल करती जाती हूँ।
रोते गाते हँसते जाते
जाने कितने ही लोगों की
कटु मधु तिक्त एहसासों को
सीने में दफन किए रहती
मैं आगे बढ़ती जाती हूँ।
नित नई ठोकरें खाती हूँ
धँस-धँसकर उन्हें नमन करती
पुरुषार्थ प्रबल जिनका होता।
जिनकी आँखें नम होती हैं
उनके आँसू पी जाती हूँ।
मैं सड़क हूँ, आगे बढ़ती ही जाती हूँ।
मैने देखा है जीवन के
नित नए बदलते रंगों को
क्या खूब सुबह, क्या शाम मृदुल
और दीप्त प्रभा की कर्मठता
झक-झक करता दिनमान प्रबल।
तीखी किरणों की मार सही
बिखरी सहमी पर पड-रही
अन्तस की व्याकुलता को पी
मैं बढ़ती जाती हूँ आगे।
है अंत नहीं कहीं मेरा
मै पहले ही मुड़ जाती हूँ।
निस्तब्ध रात्रि का विजन प्रहर
निस्पंद पड़ी मैं रहती हूँ
आहट मैं लेती रहती हूँ
चोरों की औ, बटमारों की
उन काले करतब वालों की
इन उलटे चेहरे वालों की
पैरों की थापें गिनती हूँ।
जब कोई बटोही फँसता है..
मैं काँप काँप रह जाती हूँ।
मैं साक्षी गर बन पाती तो
यह जीवन सार्थक हो जाता
मैं विवश देखती रहती हूँ
और आगे बढ़ती जाती हूँ।
बँट जाती हूँ शाखाओं में
जीवन का राज यही तो है
नित नव शाखाओं में बँटना।
खो जाती नव विस्तारों में
शत्-शत् पगडंडी हो बिखरी
मैं द्वार-द्वार पर खड़ी मिली।
नव पहचानों से आतुर हो
अंतस के फूटे प्रेम प्रबल
आतुर विह्वल मिटती जाती
पर पुनः नये पद चिह्नों से
मैं अपने रूप बनाती हूँ
खोयी-खोयी सुध आती जब
अपने ही नव प्रयत्नों की
अपना स्वरूप गढ़ लेती हूँ।
मैं बढ़ती चलती जाती हूँ।
मेरे सीने पर चढ़ कोई
जीवन का हास जुटाता है
फिर मेरे ही सीने पर हो
मरघट तक कोई जाता है।
अभिशप्त नहीं मैं सेतु बनी
मंदिर के द्वारों तक जाती
नर को नारायण तक पहुँचा
मैं श्वास शान्ति के लेती हूँ
निस्पृह योगी का मन लेकर
मैं जीवन जीती जाती हूँ
मैं आगे बढ़ती जाती हूँ।

२० अप्रैल २०१५

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