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खोलो मन के
द्वारों को अब
खोलो मन के द्वारों को अब
निर्वात और निष्कम्प हृदय को
भरने दो झकझोरों से
आन्दोलित होने दो उनको
वैचारिक रंथन मंथन से, चिंतन से
वैचारिक सत्वबोध को फिर
नवनीत सदृश नव परिणति दो
जागृत कर दो उन्मीलन को।
चिर बंधन टूटे
चिर अंध तमस के फूटे घट
नव जागरण के सुमधुर सुधा से भर दो
जन जन जीवन घट को
नव वातायन से नव प्रकाश
फूटे निर्झर बन कर छन छन
मानस धरती के कण कण को
ज्योतित हीरक कण सा कर दो
खोलो मन के द्वारों को अब।
२० अप्रैल २०१५
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