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पतझड़
नीरस
बिन हरीतिमा
पत्तों रहित
खड़ा एक वृक्ष
करता दर्द
बयान...
मैं भी कभी
हरा-भरा था
चिड़ियों के चह-चह से
गूँजता था यहाँ का कोना-कोना
पर आज खामोशी है
चाह नहीं
आश्रय की मेरी
और कोई
पास नहीं
आता है
सब दूर से ही
देख कर
चलते बनते हैं
मुझपर तरस खाकर
पर कल समय बदलेगा
प्रस्फुटित होगीं
फिर नई कोपलें
हरे पत्ते हिलेगें
तब फिर खग, कोयल
आश्रय
पायेगें
ठहरेंगे
थके पथिक विश्राम के लिये
यह परिवर्तन ही
नियति है
सहर्ष कर स्वीकार
हर पल
रह अप्रभावित
समझ जग का सार
२७ सितंबर २०१० |