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मानव
मानव?
मनु की दिव्य संतान
जीवों में
सबसे अधिक प्रधान
रखता अथाह, अदम्य बल, पौरुष
कर सकता अथक, अनवरत प्रयास
मही भी
जाती है हिल
नभ में भी कर सकता छेद
इसके ही भेष में अक्सर
अवतरित होते हैं नारायण
मिट जाता है
करुण क्रंदन
धाराशायी होते आततायी
पतितों, दुष्टों का होता है विनाश
प्रस्फुटित होती
धारा समता की
शिशु पाते हैं छाँव ममता की
होता है उद्दीप्त ज्ञान दीप,
नव उर्जा का
सतत प्रवाह
उखड़ते हैं
वैमनस्व के वृक्ष
सहिष्णुता के अंकुरित होते हैं बीज
होता है
सुख शांति का आवाहन
भूमण्डल
बन जाता है पावन
होता है क्लेष, पाप का नाश
विद्वेष, विकार
आता नहीं पास
रहकर लिप्सा, तृष्णा से निर्लिप्त
दिखता नहीं कोई विक्षिप्त
बहता है
मधुर निर्मल पवन
का झोका
प्रमुदित दिखते हैं सब नर-नारी
बन जाता है
जीवन सुखकारी
मंगलमय वातावरण का
हो जाता है सृजन अनयास
धरा पर
स्वर्ग का आभास
तु धन्य है मानव
संभव नहीं तेरा गुणगान
तुझको मेरा प्रणाम
२७ सितंबर २०१० |