ज़िंदगी
ज़िंदगी की आँखों पर
चढ़ा है काला चश्मा
अंधे की लाठी
और अँधेरे में चलाई गयी गोली
अक्सर उलट जाती हैं वे चीज़ें
जिनके नीचे
ज़मीन नहीं होती
कुछ अर्थहीन कर्तव्यों
और अधूरे प्यार की कसमों को
अक्सर उतार फेंकता है इंसान
गर्मी में ओढ़े गए लबादे की तरह
दूर क्षितिज के पार से
मुझको बुलाता है कोई
पर मैं जाऊँगा नहीं
क्योंकि घुप्प अँधेरे की तस्वीरें
और दूर से आने वाली आवाजें
अक्सर अस्पष्ट होती हैं
लपटों के बीच गुजरते हुए मैं
पढ़ रहा हूँ चुपचाप
ज़िंदगी के व्यंग्य को
और भटकते हुए समझ रहा हूँ
अब सब कुछ धीरे-धीरे
कि बहुत सुन्दर फूल और हल्का मीठा दर्द
प्रायः जानलेवा होता है
१७ फरवरी २०१४ |