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अनुभूति में अरविंद कुमार की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
आग का दरिया
ज़िंदगी
मैं और मेरी कविता
यह शहर बेजुबान क्यों?

शहर के बीच

 

आग का दरिया

गुनगुनी धूप के सहारे
साँसों के तने पर
जब भी उसकी परछाईं
पैर फैलाती है
बर्फीले बादलों के पाँव
उसके टुकड़े टुकड़े कर देते हैं

उल्लू बोलता है
आगे-पीछे
सडकों पर
खेतों में
घर-आँगन और रसोई में भी

मोची को देखकर
फटे जूते से झाँकते अँगूठे का दर्द
अचानक गायब हो जाता है
और पेट कुलबुलाने लगता है
धुआँते हुए किसी ढाबे के लिए

तुड़ा-मुड़ा इकलौता नोट
कहीं गिर कर खो न जाये
यह डर उसे भीड़ से काट कर
जेब में डाल देता है।

खाली-खाली खामोश तारीखें
सन्नाटों के धूल भरे बवंडर
दर्द से बिलबिलाती बहन की चीखें
और सड़क के उस पार
चमचमाती बत्तियाँ
उसे बार-बार चीरने लगती हैं
और उसके भीतर से
दरख्तों की टहनियाँ
फूट कर बाहर निकलना चाहती हैं

वाकई, आँखें जब आँखें नहीं रहतीं
और पेट, हाँथ, पाँव और आवाज़ भी
जब अपनी असलियत खोने लगते हैं
तो आदमी या तो जंगल हो जाता है
या फिर आग का दरिया

१७ फरवरी २०१४

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