वो मन के कितना
करीब था वो मन के कितना
करीब था, अब वो कितना दूर हुआ,
एक आईना पत्थर से टकराकर चकनाचूर हुआ।
मेरी शोहरत मुझसे भी दो-चार कदम
आगे चलती,
जहाँ गया मैं, वहाँ-वहाँ मेरा किस्सा मशहूर हुआ।
सबसे अलग दमकता चेहरा, कैसा नूर
बरसता था,
अलग-थलग पड़कर वह चेहरा बेरौनक, बेनूर हुआ।
जब तक मंज़िल की तलाश थी, तब तक
था मासूम बहुत,
मंज़िल मिलते ही बनजारा, अब कितना मगरूर हुआ।
खरी सचाई ढो-ढोकर हम पिछड़े नए
ज़माने में,
नए दौर में नकलीपन ही दुनिया का दस्तूर हुआ।
हम सीने में ज़ख़्म छिपाए थे
बेहद बेफ़िक्र, मगर
धीर-धीरे ज़ख़्म हमारा बढ़कर अब नासूर हुआ।
दौलत मिलती, इज़्ज़त मिलती,
शोहरत भी मिलती, लेकिन,
औरों की शर्तों पर जीना हमें कहाँ मंज़ूर हुआ!
५ अक्तूबर २००९ |