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अनुभूति में संजीव गौतम की रचनाएँ-

नई रचनाओं में-
दरोगा है वो दुनिया का

धूप का कत्ल
मैंने अपने आपको
यही सूरत है अब तो
सजा मेरी खताओं की

अंजुमन में—
कभी तो दर्ज़ होगी
जिगर का खूं
झूठ
तुम ज़रा यों ख़याल करते तो
पाँव के छाले
सियासत कह रही है

 

यही सूरत है अब तो

यही सूरत है अब तो बच निकलने की।
कि तैयारी करो तुम अब तो चलने की।

मैं कैसे मान लूँ हालात बदतर हैं,
मुझे उम्मीद है सूरत बदलने की।

धुआँ सा उठ रहा है हर दिशा से अब,
ये देखो आ रही है गंध जलने की।

अपनी मुट्ठी की तुम्हें ताकत नहीं मालूम,
ये कुंजी है हुकूमत को बदलने की।

गलत हो तुम कि अब कुछ हो नहीं सकता,
उमर कोई नहीं होती सँभलने की।

जमाने को बदलने से न होगा कुछ,
ज़रूरत है तो बस ख़ुद को बदलने की।

६ जनवरी २०१४

 

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