अनुभूति में
संजीव गौतम की रचनाएँ-
नई रचनाओं
में-
दरोगा है वो दुनिया का
धूप का कत्ल
मैंने अपने आपको
यही सूरत है अब तो
सजा मेरी खताओं की
अंजुमन में—
कभी तो दर्ज़ होगी
जिगर का खूं
झूठ
तुम ज़रा यों ख़याल करते तो
पाँव के छाले
सियासत कह रही है
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कभी तो दर्ज होगी
कभी तो दर्ज होगी जुर्म की तहरीर थानों में
कभी तो रोशनी होगी हमारे भी मकानों में
कभी तो नाप लेंगे दूरियां ये आसमानों की
परिंदों का यकीं कायम तो रहने दो उड़ानों में
अजब हैं माइने इस दौर की गूँगी तरक्की के
मशीनी लोग ढाले जा रहे हैं कारखानों में
कहें कैसे कि अच्छे लोग मिलना हो गया मुश्किल
मिला करते हैं हीरे कोयलों की ही खदानों में
भले ही है समय बाकी बग़ावत में अभी लेकिन
असर होने लगा है चीख़ने का बेजुबानों में
नज़रअंदाज़ ये दुनिया करेगी कब तलक हमको
हमारा भी कभी तो ज़िक्र होगा दास्तानों में
१ दिसंबर २००५
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