अनुभूति में
संजीव गौतम की रचनाएँ-
नई रचनाओं
में-
दरोगा है वो दुनिया का
धूप का कत्ल
मैंने अपने आपको
यही सूरत है अब तो
सजा मेरी खताओं की
अंजुमन में—
कभी तो दर्ज़ होगी
जिगर का खूं
झूठ
तुम ज़रा यों ख़याल करते तो
पाँव के छाले
सियासत कह रही है
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दरोगा है वो
दुनिया का
दरोगा है वो दुनिया का दरोगाई
दिखाता है।
जिसे चाहे बनाता है, जिसे चाहे मिटाता है।
अमन के दुश्मनों को रात में वो देके बन्दूकें,
सुबह से फिर वयम् रक्षाम का नारा लगाता है।
उजाले में तो करता है वो नैतिकताओं के प्रवचन,
अँधेरे में वो मर्यादाओं के चिथड़े उड़ाता है।
सियासत का खिलाड़ी है अजब अंदाज हैं उसके,
रियासत को लुटाकर वोट की फसलें उगाता है।
दिखाता तो है तस्वीरें वो मौके पर बहारों की,
मगर फिर बाद में वो सिर्फ सहरा में घुमाता है।
६ जनवरी २०१४
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