सैंकड़ों
ग़म दिल पे
सैंकड़ों ग़म दिल पे अपने उठा
कर चलते हैं
ज़िंदगी राह में फिर मुस्कुरा कर चलते हैं
फ़ासले फिसलन भरे अब ख़त्म हो
जाएँ यहीं
इक यहीं उम्मीद हम दिल से लगा कर चलते हैं
कहने को हम मुस्कुराते ज़माने
के लिए
दर हक़ीक़त ख़ुद को हम ख़ुद से छुपा कर चलते हैं
हर तरफ़ नफ़रत के उठते ज़लज़लों
के बावजूद
लोग सीनों में मुहब्बत को छुपा कर चलतें हैं
अपनी परछाई बदन कुछ बड़ी क्या
देख ली
डर के मारे आजकल हम सर झुका कर चलते हैं
किस के कब नज़दीक आ जाएँ, जुदा
हो जाएँ कब
कुछ ख़बर उनकी नहीं वो पल में क्या कर चलते हैं
क्यों महल पड़ते नहीं इन बादलों
की दृष्टि में
बिजलियाँ जब झोंपड़ों पर ये गिरा कर चलते हैं
उन तलक ग़ज़लों की कब होगी रसाई
पुरु बता
दर्दो-ग़म जिनका तेरे अशार उठा कर चलते हैं
१५ मार्च २०१० |