क्यों ऐसा
क्यों ऐसा अक्सर लगता है
घर में भी इक घर लगता है
सब कुछ पाकर भी क्यों मुझको
कुछ खोने का डर लगता है
प्यास गहनतम यदि हो जाए
क़तरा भी सागर लगता है
दुनिया मेरी, मैं दुनिया का
मुझको ये क्योंकर लगता है
क़ैद हुए हैं अपने घर में
अब अपनों से डर लगता है
सच तो है पुरु ग़ुरबत में
चिथड़ा भी चादर लगता है
१५ मार्च २०१० |