अनुभूति में
महेन्द्र हुमा की रचनाएँ-
अंजुमन में-
दुनिया से यार
बस्ती को आग
बाबा दादी
माँ ने रुई को घी बतलाकर
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बाबा दादी
बाबा-दादी बात कह रहे थे ऊपर चौबारे में
अब हम-तुम भी बँट जाएँगे इस घर के बँटवारे में
मित्र ने पूछी कुशल-क्षेम, हम क्या कहते, इससे पहले
गीली आंखें सब कुछ कह गईं हम दोनों के बारे में
जब से धर्म बना बैसाखी राजनीति के लूलों की
अब वो बात कहां मिलती मस्जिद, मंदिर, गुरूद्वारे में
मान अँधेरे का रखने को जलते दीप बुझा डाले
जो कि रोशनी दे सकते थे हमको इस अँधियारे में
नाम बहू का अन्नपूर्णा, बेटा सरवन है, लेकिन
कुछ रूखा, कुछ बासा-कूसा, हमको मिला गुजारे में
तुमने इसका जलना देखा, गर्मी ली, पर सोचा भी
जाने कितने दर्द छिपे हैं इस बुझते अंगारे में
पंगु हिमालय पर चढ़ जाएँ, मूक होएँ वाचाल ’हुमा‘
मुर्दे भी जीवित हो जाएँ उसके एक इशारे में!
२६ नवंबर २०१२ |