अनुभूति में
हरीश दरवेश की रचनाएँ-
अंजुमन में-
अंगारों से खेली हरदम
ऊब गये अखबार
क्या कहें माहौल को
मुस्कराहट हो गयी अज्ञातवासी
व्यवस्था में विषमता
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मुस्कुराहट हो गई
अज्ञातवासी
मुस्कराहट हो गयी अज्ञातवासी आजकल
हर तरफ है बस उदासी ही उदासी आजकल।
ज़िन्दगी लगने लगी है एक बिस्तर बन्द सी
आदमी भी हो गया जैसे खलासी आजकल।
हर क़दम में है घड़ी सी अनवरत गतिशीलता
ले रही है छॉंव बरगद की उबासी आजकल।
शेष है बस औपचारिकता सभी सम्बन्ध में
लोग अपने ही नगर में हैं प्रवासी आजकल।
रंग लायी आपकी स्वच्छन्दवादी सभ्यता
हो गये हमलोग फिर से आदिवासी आजकल।
२१ मई २०१२ |