अनुभूति में
धनंजय कुमार की
रचनाएँ -
अंजुमन में-
थी जुबाँ पर बात क्या
दायरा अपनी सरज़मीं का
निगाहों में कोई इशारा
पाप और पुण्य
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पाप और पुण्य
पाप और पुण्य दोनों बहाते
रोज़ गंगा नहाते नहाते।
खुल गया लौ का रिश्ता ग्रहन से
एक दीये को जलाते जलाते।
गाँव कितने उजाड़े गए हैं
एक शहर को बसाते-बसाते।
ज़िंदगी तो कभी कम न होगी
लुट भी जाओ बचाते-बचाते।
कितने वादे किए जा रहा है
एक दिलासा दिलाते-दिलाते
खुद बदल-सा गया है, वो मुझको
अपने जैसा बनाते-बनाते।
३० नवंबर २००९ |