अनुभूति में
धनंजय कुमार की
रचनाएँ -
अंजुमन में-
थी जुबाँ पर बात क्या
दायरा अपनी सरज़मीं का
निगाहों में कोई इशारा
पाप और पुण्य
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निगाहों में कोई
इशारा
निगाहों में कोई इशारा नहीं है
ये कैसा है दरिया, किनारा नहीं है।
हमारी निगाहों में चिनगारियों हैं
कोई आसमाँ पर सितारा नहीं है।
मैं जाऊँ तो कैसे, बुलाने पे उसके
बस आवाज़ दी है, पुकारा नहीं है।
वो पत्थर न पिघले, जो पाँव न फिसले
उन्हें वादियों का सहारा नहीं है।
ये सारा गुलिस्ताँ हमारा है लेकिन
कोई फूल इसमें हमारा नहीं है।
ये दुनिया पुरानी-सी होने लगी है
अभी चार दिन भी गुज़ारा नहीं है।
निगाहों की शम्मे जलाए हुए हैं
अंधेरों में उनका गुज़ारा नहीं है।
ज़मीं पर ठहर के ज़रा देर देखो
फलक ज़िंदगी का सहारा नहीं है।
३० नवंबर २००९
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