अनुभूति में
चन्द्र शेखर
पान्डेय ‘शेखर’ की रचनाएँ—
अंजुमन में—
आदमी को
एक सिक्का दिया था
कभी मंजर नहीं दिखते
जब प्रिय मिलन में
मुझे इश्क का वो दिया तो दे
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एक सिक्का दिया था
एक सिक्का दिया था माँ ने मुझको मेले में
कुछ नहीं तो ये आईना बदल के मानेगा,
दौर ऐसा गिरा खुद पे फिसल के मानेगा।
एक सिक्का दिया था माँ ने मुझको मेले में
और सिक्का मेरा दुनिया में चल के मानेगा
वो खिलौना जिसे रोटी ये छीन लेती है,
बन के हथियार वो दुनिया बदल के मानेगा।
आसमाँ जुल्म की हद तक गुजर के देखो तो,
आदमी वुसअतें तेरी कुचल के मानेगा।
धूप जो कैद है मुठ्ठी में मुझसे कहती है,
खोल दो तो जमा रिश्ता पिघल के मानेगा।
१३ अक्तूबर २०१४
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