अनुभूति में
बल्ली सिंह चीमा की रचनाएँ-
अंजुमन
में-
अब तो फिर
धूप से सर्दियों में
रोटी माँग
रहे लोगों से
ले
मशालें चल पड़े हैं
साज़िश में
वो ख़ुद शामिल हो |
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साज़िश में वो ख़ुद शामिल हो
साज़िश में वो ख़ुद शामिल हो, ऐसा भी हो सकता है,
मरने वाला ही क़ातिल हो, ऐसा भी हो सकता है
आज तुम्हारी मंज़िल हूँ मैं, मेरी मंज़िल और कोई,
कल को अपनी इक मंज़िल हो, ऐसा भी हो सकता है
साहिल की चाहत हे लेकिन, तैर रहा हूँ बीचों-बीच,
मंझधारों में ही साहिल हो, ऐसा भी हो सकता है
तेरे दिल की धडकन मुझको लगे है अपनी-अपनी-सी,
तेरा दिल ही मेरा दिल हो, ऐसा भी हो सकता है
जीवन भर भटका हूँ ‘बल्ली’, मंज़िल हाथ नहीं आई,
मेरे पैरों में मंज़िल हो ऐसा भी हो सकता है
२४ सितंबर २०१२
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