मजबूरियाँ के खौफ़
मजबूरियाँ के खौफ़ को समझा नहीं
गया
चेहरा मेरा था, आईना देखा नहीं गया
जो फिर तमाम रास्ते भटकाव में
रहा
वैसे सफ़र के बारे में सोचा नहीं गया
क़ातिल बना दिया मुझे, साबित
हुए बिना
सच क्या है और झूठ क्या रक्खा नहीं गया
मौसम की तेज़ धूप में तन्हा न
रह सका
वो खुश है उसको धूप में छो़ड़ा नहीं गया
माना कि नींद आँख से कुछ दूर थी
मगर
यादों को टूटने से भी रोका नहीं गया!
२४ अगस्त २००९ |