गुज़रे दिनों
गुज़रे दिनों की एक मुकम्मल
क़िताब हूँ
पन्ने पलट के देखिए मैं इंकलाब हूँ
मुमकिन पतों के बाद भी पहुँचे न
जो कभी
वैसे ख़तों का लौट के आया जवाब हूँ
ऐसा लगा कि झूठ भी सच बोलने लगा
पीकर न होश में रहे, मैं वो शराब हूँ
हद से कहीं हँसा न दें मेरी
कहानियाँ
इक मुख़्तसर-सी रात का नन्हा-सा ख़्वाब हूँ
माली ने ही सलीके से टहनी मरोड़
दी
इल्ज़ाम सिर लगा मेरे, मैं तो गुलाब हूँ!
२४ अगस्त २००९ |