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हम क्या बताएँ
हम क्या
बताएँ कैसे गुज़रती है ज़िन्दगी
खा-खा के ठोकरों को सँवरती है ज़िन्दगी
पहरे बिठा रखे हैं ये मौसम ने हर तरफ
उसको पता कहाँ कि बहकती है ज़िन्दगी
दिल में तेरे छुपा है जो उसकी तलाशकर
क्यों दर-व-दर सुकूँ को भटकती है ज़िन्दगी
जब से चलन दहेज का दुनिया में हो गया
पीड़ा,घुटन के साथ सुलगती है ज़िन्दगी
वो एक तितली फूल की गोदी में सो गई
तब जाना उसने कैसे महकती है ज़िन्दगी
उड़ते हैं जो ‘अनिरुद्ध’ ये आज़ाद परिन्दे
मस्ती में रोज इनकी गुजरती है ज़िन्दगी
३० जून २०१४ |