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जेठ का
महीना |
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दहक उठे
पलाश वन जल उठी दिशाएँ
सूरज को लादे सिर
घूमती हवाएँ
प्यास जिए पर्वत के माथ पर पसीना
ढूढ रहा छाया को
जेठ का महीना
लिपटी है
पैरो मे कृश नदी व्यथाएँ
छाया मे दुबक रहे शशक नकुल ब्याली
थके हुए पशुकुल की
चल रही जुगाली
बाज सुआ
बॉच रहे वैदिकी ऋचाएँ
कामिनियाँ बाँध रहीं वट तरु में धागे
सावित्री बनकर के
वर यम से माँगें
पोर-पोर
गुँथी हुई पर्व की कथाएँ
- बृजनाथ श्रीवास्तव |
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