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सुलग रही
फूलों की घाटी
प्यासी हिरनी
सम्मुख मृग जल
कंपित पग पथराया मन है
बहुत उदास आज दर्पण है।
नीलकंठ
के पंख नोच कर
मस्त बाज कर रहे किलोलें
सहमी सहमी-सी गौरैया
छुपी छुपी
शाखों पर डोलें
कोटर पर
नागों का पहरा
नींद दूर है, दूर सपन है।
पके खेत
खलिहान जोहते
बाट कहाँ वंशी की तानें
कहाँ खो गई अल्हड़ कल-कल
झरने सी
झरती मुस्काने
उभर रहे
कुंठा के अंकुश
ठहरा ठहरा सा जीवन है।
बरस रही
है आग रात दिन
सुलग रही फूलों की घाटी
उडे पखेरु नीड़ छोड़ कर
स्वप्न हुई
देहरी की माटी
बिछ़़ड गई
कोपल डाली से,
सूना सूना घर आँगन है।
-- मधु प्रधान |