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फिर हुए अंकित हृदय की भित्ति पर
वे सभी चितराम यादों के!
खो गए सब रूप
धूमिल रंग
चढ़ गई जब धूप
बदले ढँग
फिर हुए जैसे समाहित ढेर में
रागमय सुख-धाम यादों के!
तुम नहीं समझे
कि झुकती शाख
आँख है तो आयु
भर की साख
हो रही ज्यों गंध संचित, हवा में
उभर आए नाम यादों के!
कर्म के सब खेल
सोचे कौन
हर हवेली-हार
कब से मौन
लौट आएँगे कभी वे वक्त से
सब प्रवासी राम यादों के।
-तारादत्त निर्विरोध |