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५. ७. २०१०

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घूँघर बाँधे आई फुहार

  घूँघर बाँधे
आई फुहार!
कोयल के पंचम स्वर में फिर,
आन बसी है मधुर बहार,
घूँघर बाँधे आई फुहार।

मीआओं की
राग सुरीली, गा मयूर करते नर्तन,
बिजुरी चमके, सावन दमके, श्याम घटाएँ
करती गर्जन
फिर धमाल का
ताल हवा दे, तान खेत को रही सँवार,
घूँघर बाँधे आई फुहार

मदमाते आँचल
में घाटी, नहा रही है मचल-मचल,
झरनों के स्वर धूम मचाए, नदियाँ करती
है कल-कल,
उमड़ पड़ा जीवन में
यौवन, धरती करती नवशृंगार
घूँघर बाँधे आई फुहार

तप्त रहा जो अब तक
मौसम, भीग बुझाए अन्तर प्यास,
झाड़ी के संग दरखत झूमे, टहनी पत्तों में
मधुमास,
पाँखें खुजलाते विहंग,
हर बगिया के सपने साकार,
घूँघर बाँधे आई फुहार

-- बुलाकीदास बावरा
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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
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