काश!
पढ़ पाते कहीं
इतिहास हम पगडंडियों का!हाँ, उसी में
ज़िक्र मिलता
भोर में उगती किरण का
बीच-जंगल में भटकते
किसी कस्तूरी हिरण का
जहाँ परियों की गुफ़ाएँ
नाम पढ़ते
हम उन्हीं वनखंडियों का!
जान पाते तभी
किसके पाँव कितनी बार गुज़रे
घुँघरुओं के छंद सुनते
जो इधर से चढ़े-उतरे
जहाँ जाकर वे बिलाए
भेद गुनते
देह की उन मंडियों का!
किसी वन में कभी सुनते
आहटें वामन-पगों की
कोई पगडंडी बताती
किस तरफ़ कब टोलियाँ गुज़री
ठगों की
क्या बताएँ
वक़्त है यह
राजपथ की ही सुनहरी झंडियों का!
- कुमार रवीन्द्र |