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अभिव्यक्ति  

३०. ३. २००९

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यह क्या कम है

 

इन चलते फिरते लोगों में, भीड़ भाड़ में
याद तुम्हारी आ जाती है, यह क्या कम है

कितनी हैं उलझनें यहाँ, रोटी पानी की
नहीं नशीले छन्द जिन्दगी रख सकते हैं
मौसम की रंगीनी, पेट नहीं भर सकती
और न ही ये सपने, तन को ढंक सकते हैं
इतनी उड़ती गर्द धूल में, अन्धकार में
छवि न तुम्हारी मिट पाती है, यह क्या कम है

कोई उत्सव नहीं, व्यर्थ की चहल पहल है
दौड़ रहे हैं लोग, नहीं फिर भी थकते हैं
छिड़ा हुआ संघर्ष, यहाँ आगे जाने का
गिर जाने की छूट, न लेकिन रुक सकते हैं
इतने शोर तमाशे में, इस कोलाहल में
हर ध्वनि तुमको गा जाती है, यह क्या कम है

आवागमन बहुत है लेकिन प्रगति नहीं है
अन्त और प्रारम्भ कि जैसे जुड़े हुए हैं
पहुँच रहे हैं लोग सभी बस एक बिन्दु पर
यों सारे पथ, जगह जगह पर मुड़े हुए हैं
इतनी कुंठाओं में, इतने बिखरेपन में
हवा तुम्हें दुहरा जाती है, यह क्या कम है

इन चलते फिरते लोगों में, भीड़ भाड़ में
याद तुम्हारी आ जाती है, यह क्या कम है

--विनोद निगम

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