पद-रज हुई
गुलाल
लगा फिर ऋतु फगुनाई है।मादल की
थापें हों या-हों-
वंशी की तानें,
ऐसे में
क्या होगा यह तो-
ईश्वर ही जाने,
रक्तिम हुए
कपोल
झील ऐसे शरमाई है।
गंध-पवन के
बेलगाम-
शक्तिशाली झोंके,
कौन भला
इनको जो बढ़कर-
हाथों से रोके,
खिले आग के
फूल
फूँकती स्वर शहनाई है।
—डॉ. इसाक 'अश्क' |