धूप खिल
ही गई करती नखरे हजार
गर्म साँसें लुटाता
अलसा महीना
होंठो पे
खिल कर महका पसीना
शृंगार जैसे कुंदन नगीना
रेंगता जिस्म पर
सरसराता हुआ
याद करता है बिछड़े हुए देस की
बैसाख और जेठ
का ये
महीना
बरगद की
छाया गंगा किनारे
झुकी आम की बौर से सारी डालें
दहकती दोपहरी
उपवन में ठिठका
धारा की कलकल को गाता महीना
हवाओं की सर सर
सुनाता
महीना
वो झूलों
की पेंगे नभ तक चढ़ाना
सखियों के संग छत पे हँसना हँसाना
झगड़ना कभी तो
कभी गुनगुनाना
सितारों के नीचे चादर बिछाना
सुराही घड़ों से
सजता
महीना
— नीलम जैन
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